
Y A T I N D R A S H I N D E
बनावटी क्रांति के सूर्य
उस हर याद की देहली पर पुरखोंका हिसाब ब्याज के साथ होगा ।
हर नादान सुबह की आंखोमे में दहकती धुप का अंगार होगा ।
पर हर शाम का सन्नाटा अपने गुमशुदाओ को एह्सासोंमे टटोलता लुप्त आभास होगा ।
और फिर हर रात की गहरी नींद मे पलता कोई मासूम सपना किसी खून की प्यास होगा ।
काफिर की गरम बून्द किसीका जिहाद या लथपथ मिटटी में भीगी लाली किसीका तिलक होगा ।
उस हर एक किस्से को कृत करता नामर्द बकरों और बंदरों का बिकाऊ झुण्ड होगा ।
भारत माँ के हर संस्कृति या तहजीब के खजानों की रक्षा करता फिर कोई जहरीला साँप होगा ।
उसके हर जहरिली साँस को फैलाता इतिहास में अटका सुनहरी उम्मीद का गर्वभरा पवन होगा ।
हर माँ के शीतल आँचल को फाड़ता अपनेही पिताओंका वो वार उलटा सवांर होगा ।
भीड़ जायेंगे फिर दोनों तट जिसमे बहती संस्कृति का सर्वनाश अटल होगा ।
उड़ जाएँगी कही उजड़ी पत्तियोसि हर दिलकी दास्ताँ, आंखोसे आंख चुराते दोस्तों का न कभी मिलाप होगा ।
हर घर में धधकती ज्वालाओंका हर गली हर मोड़ पर धिक्कार होगा ।
हर आसुओंमें विवशतासे थिरकता फिर सूखे प्रेमवृक्ष का प्यासा प्रतिबिम्ब होगा ।
बिखरी राखसे पैदा फिर कोई ओझलसा मानवता का दूत होगा ।
हर उभरती जिंदगीसे फिर इसी दूत का अहोरात्र केवल सिर्फ पूजन होगा ।
उसकी यही आभासे फिर किसी उभरे फैले मदमस्त अजगर के नेत्रोमें अँधेरा होगा ।
उसके हर शांति के पाप के लिए मिटा दिया जायेगा फिर वही दूत, जो निसर्ग नियमोंके खिलाफ होगा ।
पुरानी जडों की अस्मिता को बुलंद बनाने वास्ते फिर बार बार बनावटी इतिहास का पुनरुत्थान होगा ...
पुराने वस्त्र नहीं बैठते जिस फैले बदन पर क्या सच में बीती संस्कृति या तहजीब का घनिष्ठ आवरण होगा ?
क्या हमारा वजूद हर बार किसी और का भटका राहनुमा होगा ?
क्या चाहते है हम अपने जाती जिंदगीसे ? चाहो तो गुलिस्तान या फिर एक कब्रिस्तान होगा !
यतीन्द्र - २०१६